निशिकांत ठाकुर
आजाद भारत के प्रथम मुख्य चुनाव आयुक्त भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी सुकुमार सेन थे। वे 21 मार्च, 1950 से 19 दिसंबर, 1958 तक इस पद पर रहे। उनके नेतृत्व में निर्वाचन आयोग ने 1951-52 में स्वतंत्र रूप से भारत के पहले दो आम चुनावों का सफलतापूर्वक संचालन और निरीक्षण किया। भारत का मुख्य चुनाव आयुक्त भारत के चुनाव आयोग का प्रमुख होता है, जो राष्ट्रीय और राज्य विधानसभाओं और राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के लिए स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए संवैधानिक रूप से सशक्त निकाय है। चुनाव आयोग की यह शक्ति भारत के संविधान के अनुच्छेद—324 से ली गई है। मुख्य चुनाव आयुक्त आमतौर पर भारतीय सिविल सेवा का सदस्य होता है और आमतौर पर भारतीय प्रशासनिक सेवा से संबद्ध होता है। आज तक के भर्ती कानून के अनुसार राष्ट्रपति द्वारा एक बार नियुक्त किए जाने के बाद मुख्य चुनाव आयुक्त के अधिकार को कम करना बहुत मुश्किल है। इसके लिए लोकसभा और राज्यसभा के दो-तिहाई के रूप में उच्छृंखल आचरण या अनुचित कार्यों के लिए उसके खिलाफ उपस्थित होने और मतदान करने की आवश्यकता है। इतिहासकार रामचंद्र गुहा अपनी किताब 'भारत गांधी के बाद' में लिखते हैं कि सुकुमार सेन का यही अनुभव भारत में पहला आम चुनाव संपन्न कराने में उनके काम आया। 1951 के पहले आम चुनाव में भारत में मतदाताओं की संख्या 17 करोड़ से ज्यादा थी। सुकुमार सेन की ही बदौलत प्रत्याशियों ने 4,500 सीटों पर चुनाव लड़ा, जिनमें से 489 सीटें लोकसभा चुनाव की और बाकी राज्यों के विधानसभा की थीं। चुनाव के लिए भारत भर में 2,24,000 मतदान केंद्र बने और 56,000 अधिकारियों की तैनाती हुई। छह महीने के कॉन्ट्रैक्ट पर 16,500 क्लर्कों को चुनाव के लिए नियुक्त किया गया। स्टील के 20 लाख से ज्यादा बक्से बनाए गए। उस वक्त चुनाव बैलेट पेपर के जरिये हुआ था। स्टील के बक्से बनाने में 8200 टन स्टील लगा, उसके बाद सबसे बड़ी चुनौती थी इन स्टील के बक्सों को अलग-अलग पोलिंग बूथ तक कैसे ले जाया जाए। कहा जाता है कि सुकुमार सेन की बदौलत ही भारत के दूसरे आम चुनाव में 4.5 करोड़ रुपये की बचत हो सकी, क्योंकि सुकुमार सेन ने पहले आम चुनाव के लाखों बैलेट बॉक्स को बचा लिया था और दूसरे लोकसभा चुनाव में भी उन्हीं का इस्तेमाल हुआ। चुनाव प्रक्रिया में सुकुमार सेन के इसी योगदान की बदौलत उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। सही मायने में कहा जाए तो सुकुमार सेन ही भारतीय लोकतंत्र के असली हीरो थे।
आजादी के बाद से अब तक के पच्चीसवें मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में राजीव कुमार 2020 से कार्यरत हैं। उनके कार्यकाल के दौरान वर्ष 2020 में बिहार, असम, केरल, पुडुचेरी, तमिलनाडु, प. बंगाल जैसे राज्यों में फर्जीवाड़े के बीच विधानसभा चुनाव हुए। उसके बाद गोवा, पंजाब, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश में चुनाव हुए। सीईसी के कार्यभार संभालने के बाद राजीव कुमार ने कहा कि उन्हें भारतीय संविधान द्वारा निर्णय में दी गई कार्यप्रणाली से एक- हमारे लोकतंत्र को मजबूत करने वाले संस्थान का नेतृत्व करने की जिम्मेदारी दी गई है। उन्होंने कहा कि हमारे नागरिकों को स्वतंत्र और चुनाव पर जोर दिया गया है, मतदाता सूची की शुद्धि सुनिश्चित करने, कदाचार को रोकने और हमारे चुनावों की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए पिछले सत्तर वर्षों के दौरान ईसीआई द्वारा बहुत कुछ किया गया है।
वर्तमान में चुनाव आयुक्त अरुण गोयल की नियुक्ति पर विवाद थमता नजर नहीं आ रहा है। इसे लेकर केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट आमने-सामने हैं। पिछले दिनों केंद्र सरकार ने अरुण गोयल की नियुक्ति से जुड़ी फाइल सुप्रीम कोर्ट को सौंप दी। इसे देखने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 'हड़बड़ी' और 'जल्दबाजी' पर सवाल उठाते हुए कहा कि उनकी फाइल 'बिजली की गति' से क्लियर की गई। जस्टिस केएम जोसेफ ने कहा, 'अदालत ने 18 नवंबर से इस मामले पर सुनवाई शुरू की और उसी दिन फाइल बढ़ा दी गई और प्रधानमंत्री ने राष्ट्रपति को गोयल के नाम की सिफारिश कर दी। इतनी जल्दबाजी क्यों?' इस पर अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी ने जवाब दिया कि कई सारी नियुक्तियां 12 घंटे या 24 घंटे में ही हुई हैं। हालांकि, कोर्ट ने यह भी साफ किया कि वह अरुण गोयल की योग्यता पर सवाल नहीं उठा रहे हैं, बल्कि सवाल नियुक्ति प्रक्रिया पर उठ रहे हैं।
पिछले दिनों पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने अपने एक अहम फैसले में कहा कि मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा तीन सदस्यीय समिति की सलाह पर की जाएगी। समिति में प्रधानमंत्री, लोकसभा में नेता विपक्ष और भारत के प्रधान न्यायाधीश होंगे। अगर लोकसभा में नेता विपक्ष न हो, तो सदन में सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता सलाह देने वाली समिति में शामिल होंगे। यह व्यवस्था संसद द्वारा इस बारे में कानून बनाए जाने तक लागू रहेगी। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि लोकसभा में चुनाव में शुचिता बनाए रखनी चाहिए, अन्यथा इसके विनाशकारी परिणाम होंगे। ज्ञात हो कि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय आने से पर मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयोग की नियुक्त इस प्रकार होती थी जिसमें संविधान के भाग XV (चुनाव) में सिर्फ पांच अनुच्छेद (324-329) हैं। संविधान का अनुच्छेद—324 'चुनावों के अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण' को चुनाव आयोग को सौंपता है, जिसमें मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों की संख्या शामिल हैं। बता दें कि संविधान सीईसी और ईसी की नियुक्ति के लिए एक विशिष्ट विधायी प्रक्रिया निर्धारित नहीं करता है। फिलहाल राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली केंद्रीय मंत्रिपरिषद की सलाह पर नियुक्ति की जाती है, हालांकि भारत के संविधान ने बारीकियों में जाए बिना चुनाव आयोग को व्यापक अधिकार दिए हैं। 15 जून, 1949 को संविधान सभा में इस प्रावधान को पेश करते हुए बाबासाहेब अंबेडकर ने कहा था, 'पूरी चुनाव मशीनरी एक केंद्रीय चुनाव आयोग के हाथों में होनी चाहिए, जो अकेले रिटर्निंग अधिकारियों, मतदान अधिकारियों और अन्य लोगों को निर्देश जारी करने का हकदार होगा।' संसद ने बाद में आयोग की शक्तियों को परिभाषित करने और बढ़ाने के लिए लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम—1950 और जन प्रतिनिधित्व अधिनियम—1951 को लागू किया।
आईएएस अधिकारी अरुण गोयल को पिछले हफ्ते चुनाव आयुक्त नियुक्त करने की 'बिजली की गति' पर सवाल उठे, सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से पूछा कि क्या इस पद को भरने के लिए कोई 'आपातकाल' था। चुनाव आयोग की राय 15 मई को उठी और चुनाव आयुक्त अरुण गोयल की फाइल को 'बिजली की गति' से मंजूरी दी गई, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, 'यह कैसा मूल्यांकन है? हम ईसी अरुण गोयल की साख पर सवाल नहीं उठा रहे हैं, बल्कि उनकी नियुक्ति की प्रक्रिया पर सवाल उठा रहे हैं।' हम आपको फ्रैंक बता रहे हैं। आप (केंद्र) धारा—6 [1991 के चुनाव आयोगअधिनियम] का उल्लंघन कर रहे हैं। आप कोर्ट की बात ध्यान से सुनेंगे और सवालों के जवाब देंगे। हम व्यक्तिगत साक्षरता पर नहीं, बल्कि प्रक्रिया पर हैं।' कोर्ट ने केंद्र सरकार से यह भी कहा था, 'हम चाहते हैं कि आप इस अधिकारी की नियुक्ति से संबंधित फाइलें पेश करें, ताकि अगर आप सही हैं, जैसा कि आप दावा करते हैं कि कोई रोमांटिक-पैंकी नहीं है, तो डरने की कोई बात नहीं है।' सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि एक सीईसी को 'चरित्र वाला' होना चाहिए, जो 'खुद को बुलडोजर से नहीं चलाता', और पूर्व सीईसी, दिव्यांग टीएन शेष जैसा व्यक्ति 'कभी-कभी होता है।'
अब प्रश्न यह है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा इतनी कड़ी टिप्पणी के बावजूद क्या अरुण गोयल को चुनाव आयुक्त के पद पर कार्यरत रहना चाहिए? यदि फिर भी वह इस पद के कार्यभार को संभालते हैं और उस पद पर बने रहते हैं, तो इसे स्वतंत्र भारत के इतिहास का दुर्भाग्यपूर्ण और काले दिन के रूप में याद किया जाएगा। जो भी हो, सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के बाद कि अब चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति किस प्रकार होगी, जनता के मन में यह बात तो बैठ ही गई है कि पिछले लगभग नौ वर्षों में, विशेषरूप से वर्तमान सरकार के कार्यकाल में, जो भी चुनाव हुए वह व्यक्ति विशेष के कृपापात्र होने की अभिलाषा में दोषमुक्त और निष्पक्ष चुनाव देश में नहीं कराए गए। अब आगामी चुनाव कैसा होगा, यह तो समय ही बताएगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)